समर्थन रणनीति

यूपी की राजनीति में बड़ा खेल. राष्ट्रपति चुनाव में NDA उम्मीदवार को शिवपाल, राजा भैया और राजभर का समर्थन
President Election 2022: उत्तर प्रदेश की विपक्ष की एकता में राष्ट्रपति चुनाव ने सेंध लगा दी है। एनडीए के खेमे में अखिलेश के चाचा शिवपाल और सहयोगी ओपी राजभर नजर आ रहे हैं। इसने विपक्ष की पूरी रणनीति ही गड़बड़ कर दी है।
हाइलाइट्स
- एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में नजर आए शिवपाल यादव
- ओम प्रकाश राजभर ने भी मुख्यमंत्री आवास पहुंच दिया समर्थन
- राजा भैया का भी एनडीए उम्मीदवार को समर्थन, विपक्षी रणनीति फेल
- पहली बार यूपी पहुंची एनडीए की राष्ट्रपति उम्मीदवार का जोरदार स्वागत
संख्या लिहाज से मजबूत होंगी एनडीए उम्मीदवार
एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू उत्तर प्रदेश में संख्या लिहाज से काफी मजबूत होती दिख रही हैं। उन्हें एनडीए के 66 सांसद और 273 विधायकों का पहले से समर्थन हासिल था। बाद में मायावती ने भी उन्हें समर्थन देने का ऐलान कर दिया। इससे उनके पक्ष में 10 सांसद और एक विधायक का वोट जुड़ेगा। इसके अलावा अब शिवपाल यादव के आने से सपा का भी एक वोट द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में जाता दिख रहा है। राजा भैया की पार्टी जनसत्ता दल के 2 वोट भी एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में जाएंगे।
ओम प्रकाश राजभर के एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में आने के बाद अब सुभासपा के 6 वोट इस पाले में जाते दिख रहे हैं। इस प्रकार यूपी के 76 सांसद और 282 विधायकों का समर्थन सीधे एनडीए उम्मीदवार के पाले में जाता दिख रहा है। यह यूपी की बदलती राजनीति को दिखा रहा है।
यशवंत सिन्हा के पक्ष में घटा वोट
समाजवादी पार्टी के विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को समर्थन दिए जाने से उन्हें यूपी से विपक्ष का सभी वोट अपने पक्ष में आने की उम्मीद थी। लेकिन, ऐसा नहीं हो सका। सपा अपने खेमे को पाले में रखने में कामयाब नहीं हो पाई। गुरुवार को यशवंत सिन्हा के साथ बैठक और प्रेस कांफ्रेंस में सपा के सहयोगी के तौर पर राष्ट्रीय लोक दल ही खड़ी दिखी। सुभासपा वहां नदारद थी। शिवपाल भी कार्यक्रम में नहीं पहुंचे थे।
ऐसे में यूपी से सपा समर्थित उम्मीदवार को कांग्रेस के एक और सपा के तीन यानी कुल 4 सांसदों का समर्थन मिलता दिख रहा है। वहीं, सपा के 110 समर्थन रणनीति समर्थन रणनीति विधायक, रालोद के 8 विधायक और कांग्रेस के 2 विधायक यानी कुल 120 विधायकों का वोट यशवंत सिन्हा के पक्ष में जा सकता है।
सपा को लगा है जोर का झटका
समाजवादी को एक बार फिर राष्ट्रपति चुनाव में जोर का झटका लगता दिख रहा है। वर्ष 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देने को लेकर तब के सहयोगी कांग्रेस के साथ बात बिगड़ गई थी। अब अखिलेश यादव के अपने चाचा और सुभासपा साथ छोड़ते दिख रहे हैं। पिछले दिनों शिवपाल ने कहा था कि हम जिसे वोट देंगे, वही राष्ट्रपति बनेगा। इसके बाद से ही लगने लगा था कि वे एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में जाने वाले हैं। शुक्रवार की शाम मुख्यमंत्री आवास पहुंच कर उन्होंने इस संशय से पर्दा हटा दिया।
लोकभवन में आयोजित कार्यक्रम में हुआ स्वागत
मुख्यमंत्री आवास में रात्रि भोज से पहले लोकभवन में आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में द्रौपदी मुर्मू का पहली बार यूपी आगमन पर जोरदार स्वागत हुआ। सीएम योगी आदित्यनाथ, डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक के साथ-साथ तमाम सहयोगी दलों के नेताओं ने उनका स्वागत किया। अपना समर्थन उन्हें दिया। समर्थन रणनीति इस दौरान एनडीए के सहयोगी दल अपना दल एस और निषाद पार्टी के नेता भी नजर आए। कार्यक्रम के दौरान अमेठी की सांसद स्मृति ईरानी ने भी द्रौपदी मुर्मू का स्वागत किया।
राजभर का फैसला अखिलेश के लिए झटका
ओम प्रकाश राजभर ने ऐन राष्ट्रपति चुनाव से पहले जिस प्रकार से फैसला बदला है, उससे निश्चित तौर पर अखिलेश यादव को झटका लगेगा। हालांकि, पिछले दिनों एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान किसी के नाराज होने की स्थिति में कुछ भी न कर पाने की बात कर बड़ा संकेत दे दिया था। यह संकेत राजभर को न मनाए जाने को लेकर माना गया। ऐसे में राजभर ने अपनी चाल बदलकर अखिलेश को हैरान कर दिया है। मुख्यमंत्री आवास पहुंचे राजभर और शिवपाल ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन का भरोसा दिलाया। एनडीए उम्मीदवार से मुलाकात के बाद राजभर और शिवपाल सीएम आवास के दूसरे गेट से बाहर निकले।
समर्थन रणनीति
13 दिसंबर, 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा कन्वेंशन को अपनाया गया था और 30 मार्च, 2007 को राज्य दलों द्वारा हस्ताक्षर करने के लिए खोला गया था। कन्वेंशन को अपनाने ने वास्तव में दुनिया भर में विकलांग व्यक्तियों को उनके अधिकारों की मांग करने और राज्य बनाने के लिए सशक्तिकरण प्रदान किया है। निजी और नागरिक समाज एजेंसियां अपने अधिकारों का आनंद लेने के लिए जिम्मेदार हैं।
भारत उन कुछ पहले देशों में से एक है, जिन्होंने कन्वेंशन की पुष्टि की। 30 मार्च 2007 को कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने के परिणामस्वरूप, भारत ने 01.10.2007 को कन्वेंशन की पुष्टि की। कन्वेंशन 3 मई, 2008 से लागू हुआ। कन्वेंशन प्रत्येक राज्य पार्टी पर निम्नलिखित तीन महत्वपूर्ण दायित्वों को स्थान देता है: -
कन्वेंशन के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए ठोस उपाय करते हुए, सभी संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों से अनुरोध किया गया कि वे कन्वेंशन के प्रावधानों को लागू करें, जैसा कि उनमें से प्रत्येक पर लागू हो सकता है। इसी तरह, सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों से भी अनुरोध किया गया कि वे कन्वेंशन के तहत विभिन्न प्रावधानों / दायित्वों की जांच करें, जो उनसे संबंधित हो सकते हैं और उनके शीघ्र कार्यान्वयन के लिए प्रभावी कदम उठा सकते हैं। राज्य सरकारों / केन्द्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों को भी इस संबंध में स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था ताकि देश रिपोर्ट तैयार करने की दिशा में इसका उपयोग किया जा सके। इस संबंध में कठोर निगरानी और अनुवर्ती कार्रवाई की जा रही थी ताकि कन्वेंशन के दायित्वों को पूरा किया जा सके। भारत की पहली देश रिपोर्ट नवंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र की समिति के अधिकारों के लिए प्रस्तुत की गई थी।
इंचियोन रणनीति "एशिया और प्रशांत में विकलांग लोगों के लिए सही वास्तविक बनाने के लिए"। एशिया और प्रशांत के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग के सदस्यों और सहयोगी सदस्यों के प्रतिनिधि और प्रतिनिधि (ईएससीएपी) विकलांग व्यक्तियों के एशियाई और प्रशांत दशक के कार्यान्वयन की अंतिम समीक्षा पर उच्च स्तरीय अंतर सरकारी बैठक में इकट्ठे हुए, 2003-2012 को 29 अक्टूबर, 2 नवंबर, 2012 से इंचियोन, कोरिया में आयोजित किया गया और एशिया और प्रशांत क्षेत्र में विकलांग लोगों के लिए इंचियोन रणनीति "मेक द रियल रियल" को अपनाया। 25 अप्रैल से आयोजित 69 वें सत्र में ईएससीएपी - 1 मई, 2013 को मंत्रिस्तरीय घोषणा और इंचियोन रणनीति का समर्थन करते हुए प्रस्ताव पारित किया गया।
बीजिंग में दिव्यागों (2013-2022) के लिए एशिया और प्रशांत दशक की मध्य-बिंदु समीक्षा पर उच्च स्तरीय अंतर-सरकारी बैठक 27 नवंबर से 1 दिसंबर, 2017 तक बीजिंग में आयोजित की गई थी। बैठक में विचार-विमर्श के बाद, बीजिंग घोषणा को अपनाया गया। जो अगले पांच वर्षों में इंचियोन रणनीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राज्य दलों के लिए कार्य योजना की रूपरेखा तैयार करता है।
BJP का मास्टरस्ट्रोकः महाराष्ट्र को बहुत दूर तक देख पा रही है भाजपा, ये है असली रणनीति
महाराष्ट्र में जिस भाजपा ने शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने के बजाय गठबंधन तोड़ लिया था, आज वही भाजपा एकनाथ शिंदे को समर्थन क्यों दे रही है. क्या है इसके पीछे की असली कहानी?
पाणिनि आनंद
- नई दिल्ली,
- 30 जून 2022,
- (अपडेटेड 01 जुलाई 2022, 9:17 AM IST)
- शिंदे को सीएम बनाने के पीछे बड़ी रणनीति
- शिवसेना को कमजोर करने की कवायद
छत्रपति शिवाजी महाराज के बचपन के एक सखा थे- तानाजी मालुसरे. सिंहगढ़ के ऐतिहासिक युद्ध में तानाजी मारे गए. सिंहगढ़ शिवाजी का हुआ. तानाजी शहीद हुए जिसपर शिवाजी ने कहा, गढ़ आला पण सिंह गेला. यानी गढ़ हमने जीत लिया लेकिन सिंह चला गया. कथा न सही, लेकिन शिवाजी का यह वाक्य फिलहाल शिवसेना के लिए सटीक साबित होता दिख रहा है. शिवसेना को गढ़ मिल गया है और शिवसेना अपने सिंह से मुक्त हो गई है.
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने गुरुवार को अपनी प्रेस कांफ्रेंस में खुद मुख्यमंत्री न बनकर शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा करके सियासी गलियारों में भूचाल ला दिया. लोग तो लोग, भाजपा के विधायक तक इस बात से हतप्रभ थे कि जिस कुर्सी के लिए भाजपा ने शिवसेना से गठबंधन तोड़ लिया था, आज वो कुर्सी सामने है और फडणवीस उसपर बैठने से इनकार कर रहे हैं.
महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री अब एकनाथ शिंदे हैं. शिंदे पद की शपथ लेंगे. लेकिन यह केवल शिंदे के मुख्यमंत्री बनने की शपथ नहीं है. यह मातोश्री मुक्त शिवसेना की शपथ है. यह परिवारवाद मुक्त राजनीति की शपथ है. ये बादलों के बाद ठाकरे से वीकिर की शपथ है. यह शपथ है राजनीति के मोदी मॉडल की जिसमें परिवारों के विरोध पर खड़ी पार्टी अपने साथ चल रहे परिवारों से भी मुक्ति चाहती है.
ऐसा प्रकट रूप से लग सकता है कि भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद का बलिदान एक पीछे हटा कदम है. लेकिन दरअसल ये अपने कदमों को पीछे खींचकर आगे कूदने की तैयारी है. भाजपा इस एक फैसले से बहुत कुछ साधती नजर आ रही है. भाजपा का यह एक कदम कई सवालों, चिंताओं और संभावनाओं के उत्तर अपने अंदर समेटे हुए है.
भाजपा का मास्टरस्ट्रोक
शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के कई निहितार्थ हैं. इसे समझने के लिए प्रेस कांफ्रेंस में फडणवीस के बयान पर गौर करें. उन्होंने कहा- एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री होंगे. शिवसेना की सरकार बनेगी. भाजपा उनका समर्थन करेगी.
दरअसल, एकनाथ शिंदे वैसे भी उद्धव के साथ सुलह कर लेते तो उपमुख्यमंत्री बन ही सकते थे. लेकिन मुख्यमंत्री बनकर शिंदे शिवसेना के मुख्यमंत्री माने जाएंगे. उनको भाजपा का समर्थन होगा. सरकार शिवसेना की होगी. शिवसैनिकों के लिए यह एक बड़ा संदेश है. इससे पार्टी का एक बड़ा हिस्सा और समर्थक शिंदे के खिलाफ खड़े होने के बजाय उनके साथ खड़े होंगे.
शिंदे शिवसेना की सरकार का नेतृत्व करते हुए न केवल पार्टी और समर्थकों को साधेंगे बल्कि शिवसेना को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ला पाने की स्थिति में भी होंगे. यहां से ठाकरे मुक्त शिवसेना की शुरुआत के लिए एक अहम समर्थन रणनीति दांव खेल दिया गया है. शिंदे सरकार और संगठन, दोनों ही मोर्चों पर ठाकरे मुक्त शिवसेना को स्थापित करने का काम करने वाले हैं.
शिंदे के मुख्यमंत्री बनने से न तो शिंदे पर सत्ता लोलुप होने का इल्जाम लगेगा और न ही भाजपा पर. पिछली बार भाजपा ने जैसे शिवसेना का दामन छोड़ा था और जिस तेजी से देवेंद्र फडणवीस ने शपथ ली थी, उससे लोगों के बीच भाजपा के सत्ता लोलुप होने की छवि बनती जा रही थी. उद्धव सरकार पर लगातार हो रहे हमलों को भी भाजपा की सत्ता पाने की बेचैनी के तौर पर ही देखा गया था. शिंदे को आगे करके भाजपा ने बड़ा दिल दिखा दिया है और ऐसे आरोपों को विराम देने की ओर एक बड़ा कदम उठाया है.
फडणवीस ने हिंदुत्व के मुद्दे पर समर्थन की बात कहकर आगे की रणनीति का एक और अहम संकेत दिया है. शिंदे और भाजपा अबतक उद्धव ठाकरे के सत्ता लोलुप होने और सिद्धांतों से समझौता करके कुर्सी पाने वाले चरित्र को मुद्दा बनाकर आगे बढ़ी है. अब यहां से शिंदे ऐसे फैसलों पर जोर देंगे जो असली और पुख्ता हिंदुत्व के तौर पर देखे जाएंगे. ऐसे फैसले लेते शिंदे और इनका समर्थन करती भाजपा अब हिंदुत्व पर ठाकरे और लोगों के सामने एक बड़ी लकीर खींचेंगे. लोगों के बीच इसे स्थापित कर दिया समर्थन रणनीति जाएगा कि ठाकरे को सत्ता से बाहर करने के पीछे का असल मकसद हिंदुत्व की राजनीति की पुनर्स्थापना था, कुर्सी की भूख नहीं.
भाजपा के लिए शिंदे वाली शिवसेना का समर्थन करना दरअसल परिवार और परिवारवाद के विरोध के रूप में देखा जाएगा, शिवसेना के विरोध के रूप में नहीं. इससे वैचारिक समता की जमीन पर दोनों पार्टियों के समर्थकों के बीच तनाव की गुंजाइश कमतर होगी. जब यह साबित हो जाएगा कि भाजपा शिवसेना विरोधी नहीं है तो ठाकरे के पास कोई भावनात्मक या विक्टिम कार्ड जैसी संभावना नहीं बचेगी. भाजपा कतई नहीं चाहती कि ठाकरे अभी या आगे पथभ्रष्ट के बजाए पीड़ित के रूप में देखे जाएं. भाजपा के लिए आगे की राजनीति के लिए यह एक बहुत अनुकूल परिस्थिति होगी.
भाजपा यह भी स्थापित करना चाहती है कि बाला साहेब ठाकरे की सोच और पार्टी किसी परिवार की जागीर नहीं है. बाला साहेब एक विचार हैं और भाजपा उसका पूरा सम्मान करती है. वो बाला साहेब के परिवार से मुक्त होकर भी बाला साहेब के विचारों को आगे बढ़ाने वाली पार्टी के रूप में खुद को स्थापित करना चाहती है.
महा-भाजपा
दरअसल, भाजपा को भविष्य में एक संभावना दिख रही है. महाराष्ट्र में राजनीति के पटल पर अपने दम पर खड़े होकर राजनीति करने और सत्ता तक आने की संभावना. एक ऐसी संभावना जिसमें भविष्य की शिवसेना न केवल उनके साथ होगी बल्कि उनपर निर्भर भी होगी. एक ऐसी संभावना जहां हिंदुत्व की ज्यामिती का बॉक्स भाजपा के हाथ में होगा, किसी उद्धव, आदित्य या राज ठाकरे के हाथों में नहीं.
भाजपा की इस संभावना में भविष्य में एकपथ-एकरथ वाला गठजोड़ है. भाजपा और शिवसेना साथ-साथ हैं. विधायक, समर्थक, सारथी और समर. सबमें भाजपा एक अग्रसर की तरह खड़ी दिखेगी. शिवसेना के सिंह के मुंह में दांत होंगे भी तो उन्हें भाजपा ही गिन रही होगी.
भाजपा के लिए शिंदे को समर्थन देने का फैसला ढाई साल की राजनीतिक खींचतान में बिगड़ी छवि को सुधारने का महायज्ञ भी है और भविष्य में उससे फलीभूत होने की गारंटी भी. मुंबई शहर से लेकर महाराष्ट्र की सत्ता तक पहली बार भाजपा इतनी मजबूत और प्रभावी स्थिति में होगी. उसे किसी रिमोट का खतरा नहीं होगा. बल्कि इस बार रिमोट खुद भाजपा के हाथ में होगा. मराठी थिएटर में भाजपा की इस दिलचस्प समर्थन रणनीति पटकथा का पर्दा उठ चुका है. नगाड़े बोल उठे हैं. आगे-आगे खेल है. उद्धव अब दर्शक दीर्घा की अंतिम लाइन में हैं शायद, सिर उचकाते हुए, असहज और अकेले.
One China Policy को लेकर क्या है India की रणनीति, जानिए Taiwan के साथ कैसे हैं हमारे रिश्ते
चीन और ताइवान के साथ संबंधों के लेकर भारत हमेशा से सजग रहा है. भारत ने चीन की वन चाइना पॉलिसी को कभी भी औपचारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया है. लेकिन ताइवान के साथ भी कोई औपचारिक राजनयिक रिश्ता नहीं रखा है. हालांकि ताइवान के साथ अब संबंधों को मजबूत करने की दिशा में काम किया जा रहा है.
नरेंद्र मोदी, त्साई इंग वेन औ शी जिनपिंग
gnttv.com
- नई दिल्ली,
- 03 अगस्त 2022,
- (Updated 03 अगस्त 2022, 10:28 AM IST)
भारत ने वन चाइना पॉलिसी का औपचारिक समर्थन नहीं किया
ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी ताइवान दौरे समर्थन रणनीति पर हैं. नैंसी ने साफ कर दिया कि अमेरिका सुरक्षा के मुद्दे पर ताइवान के साथ खड़ा है. नैंसी पेलोसी के दौरे से चीन खफा है और बार-बार धमकी दे रहा है. चीन ने ताइवान से खट्टे फल और मछली के उत्पाद के आयात को सस्पेंड कर दिया है. नैंसी के ताइवान दौरे और चीन की प्रतिक्रिया पर भारत नजर बनाए हुए है. हालांकि भारत की तरफ से अब तक कोई बयान नहीं आया है.
भारत का ताइवान के साथ कोई भी औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं है. दरअसल भारत वन चाइना पॉलिसी का पालन करता है. लेकिन इसके बावजूद भारत ने कभी भी औपचारिक तौर पर वन चाइना पॉलिसी का समर्थन नहीं किया है. दिसंबर 2010 में चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत दौरे पर आए थे. उस दौरान भी संयुक्ति विज्ञप्ति में भारत ने वन चाइना पॉलिसी के समर्थन का जिक्र नहीं किया था. हालांकि साल 2014 में बीजेपी सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में ताइवान के राजदूत चुंग क्वांग टीएन को बुलाया था.
ताइवान के साथ कैसा रहा है संबंध-
राजनयिक कामों के लिए ताइपे में भारत ने एक ऑफिस खोला है. भारत-ताइपे एसोसिएशन की अगुवाई एक सीनियर डिप्लोमैट करते हैं. ताइवान का नई दिल्ली में ताइपे आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र (TECC) है. इन दोनों की स्थापना साल 1995 में हुई थी. इस दौरान भारत और ताइवान के संबंध वाणिज्य, संस्कृति और शिक्षा पर केंद्रित रहा है. चीन की संवेदनशीलता की वजह से भारत ने ताइवान के साथ संबंध को हमेशा लो-प्रोफाइल रखा है. डोकलाम विवाद के बाद साल 2017 से संसदीय प्रतिनिधिमंडल का दौरा और विधायी स्तर की बातचीत को भी बंद कर दिया गया है.
ताइवान के साथ बदल रहा रिश्ता-
भारत की तरफ से हाल के कुछ वर्षों में ताइवान के साथ संबंध को बेहतर करने की कोशिश की गई है. इस दौरान ताइवान और भारत के साथ चीन के संबंध बेहद तनावपूर्ण रहे हैं. जब साल 2020 में गलवान में चीन के साथ संघर्ष हुआ. तो उसके बाद से भारत ताइवान को लेकर एक्टिव हो गया. भारत ने ताइपे में गौरांगलाल दास को अपना दूत बनाया. उस वक्त गौरंगलाल अमेरिका में ज्वाइंट सेक्रेटरी थे. इसके बाद भारत सरकार ने ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग वेन के शपथ ग्रहण समारोह में अपने दो सांसदों को वर्चुअली शामिल होने को कहा.
अगस्त 2020 में ताइवान के पूर्व राष्ट्रपति ली टेंग-हुई का निधन हुआ तो भारत ने उनको मिस्टर डेमोक्रेसी कहा. इसे चीन के लिए भारत के एक संदेश के तौर पर देखा गया. हालांकि भारत इसको लेकर हमेशा से सावधान रहा है कि ताइवान पर कोई राजनीतिक बयान ना दे.
ली टेंग-हुई के शासनकाल में साल 1995 में भारत ने आईटीए की स्थापना की थी. साल 1996 में ली को दोबारा राष्ट्रपति चुना गया. इस दौरान ली ने ऐसे कई कानूनों से छुटकारा पाया, जो लोकतंत्र के विकास में बाधा बन रहे थे. पहली बार ताइवान में लोगों को राष्ट्रपति चुनने के लिए वोट डालने की इजाजत मिली.
ताइवान के साथ क्या है भविष्य-
ताइपे में ताइवान-एशिया एक्सचेंज फाउंडेशन की विजिंग फेलो सना हाशमी ने सिंगापुर के नेशनल यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज के लिए इस साल मई में एक पेपर लिखा था. जिसमें उन्होंने बताया था कि भारत और ताइवान संबंधों में किसी भी महत्वपूर्ण बदलाव पर चीन की कड़ी प्रतिक्रिया की आशंका रहती है. यह बताता है कि ताइवान के साथ भारत की पहुंच धीमी क्यों है. फिलहाल भारत और चीन के संबंध सामान्य होने की दिशा में लौटने की संभावना नहीं दिख रही है. इसलिए भारत को ताइवान के साथ संबंधों को साहसिक और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ अपनाने पर विचार करना चाहिए. उन्होंने ये भी कहा कि भारत और ताइवान का एक-दूसरे के साथ चलने के कई कारण हैं.
फिलहाल ताइवान की समर्थन रणनीति सरकार भारत के साथ सहयोग को बढ़ाना चाहती है. क्योंकि ताइवान की नई पॉलिसी दक्षिण की ओर देखने वाली है. जिसमें भारत सबसे प्राथमिकता वाला देश है. अब तक भारत और ताइवान के बीच आर्थिक और लोगों के बीच वाला संबंध रहा है. लेकिन चीन के साथ तनाव के बीच भारत और ताइवान अपने संबंधों को आगे बढ़ाने पर ध्यान दे रहे हैं.