भारतीय विदेशी मुद्रा बाजार

एक दलाल का वेतन क्या है

एक दलाल का वेतन क्या है

पत्रकारों दलाली छोड़ो, दलालों पत्रकारिता छोड़ो*

प्रयागराज :रिपोर्ट रिवेन्दर सिंह :(शंकरगढ़) पेशेवर व धंधेबाज पत्रकार जब भी चाहे जिससे जहां से कुछ प्राप्ति संभव हो, सम्मान या पुरस्कार मिलना संभावित हो, उसी के चरण चुम्बन व चाटुकारिता व चापलूसी करने में सदा ही कर्तव्यरत रह नतमस्तक रहते हैं। इन्हें काफी कुछ मिलता है ऐसे दलाल पत्रकार विभिन्न सरकारी व् प्रशासनिक अधिकारियों के आफिसो में चटनी चाट चाटते और उनकी दलाली करते पुलिस स्टेशनों और दूसरे विभागों में देखे जा सकते हैं।ये दलाल दिन भर वहीं उनके दोने पत्तल और चाय की प्याली चाटते नजर आते हैं, और उनके इशारे पर खुद को असली बाकी अच्छे पत्रकारों को फर्जी तक का लेबल देंने में भी नहीं चूकते, जिसके विरूद्ध उनकी कलम चलेगी। उस पर व उसके परिवार पर जुल्म और अत्याचार का कहर न केवल उधर से टूटेगा। बल्कि, इस देश में जहां बेईमानी, झूठ, फर्जीवाड़े, भ्रष्टाचार, का साम्राज्य चहुंओर फैला हुआ है। वहां उन्हें सताया जाता है कि या तो वे खुद एक दलाल का वेतन क्या है ही आत्महत्या कर लें या लिखना बंद कर दें।पत्रकारिता छोड़ दें। या उनकी सीधे हत्या ही करवा दी जाती है।उनकी कलम के चारों ओर खौफ, आतंक व दहशत का जाल पसरा रहता है। पल-पल मिलती धमकियां, कभी जान से मारने की धमकियां, और मजे की बात यह कि उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं, कोई कार्यवाही नहीं शायद आपको ऐसे पत्रकारों के लिये इनको सताने में, इनका गरीब होना, कमजोर होना, छोटा होना पत्रकारिता पेशा या व्यवसाय नहीं, एक मिशन है,इज्जत और कार्यवाही पत्रकार की बुलंद कलम कराती है। पत्रकारिता की चर्चा, पत्रकारों की चर्चा, विशेषकर आज कोई सम्मानित कर रहा है, तो कोई किसी को अपमानित कर रहा है। जैसे कि पत्रकार या तो पुण्य धर्म कर रहा है या घोर अपराध कर रहा है।आज के वक्त में किसी ईमानदार व सच्चे पत्रकार का कलम चलाना बेहद दूभर है। विशेषकर सोशल मीडिया के जमाने में तो यह तकरीबन नामुमकिन सा ही है। एक पत्रकार की परिभाषा बड़ी व्यापक होतीं है।जिसे व्यक्त करना या परिभाषा के दायरे में बांधना लगभग नामुकिन सा है।भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की जो भूमिका रही। वह उन क्रातिकारियों के बलिदानों से कहीं ज्यादा ऊपर और अव्वल है। जो क्रांति करते थें, और पत्रकार अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उनके समाचार व खबरें फैलाने का काम करके जनता में जागरूकता व उत्साह भरा करते थें।आज की पत्रकारिता कुछ अलग किस्म की हैं आज पत्रकारिता वर्गवार पत्रकारिता की जाने लगी है। पहले जहां गरीबी से जमीनी मिट्टी से कलम निकल कर चलती और सच को बयां करने में अंग्रेजी हुकूमत से सीधी टकराती कलम व जमीन देश, अपनी मिट्टी, मातृभूमि के लिये समर्पित कलम चलाने वाले वे पत्रकार जो कभी किसी सम्मान, पुरस्कार, वेतन, पारिश्रामिक या प्राप्ति की आकांक्षा व इच्छा न रख कर केवल अपना काम करते हैं, केवल सच बोलते हैं, सच लिखते हैं, उनके लेखन में ईमानदारी रहती है और वे सारे लोभ लालचों से दूर,अपना काम करते हैं। अब तो चुम्बन व चाटुकारिता व चापलूसी करने में सदा ही कर्तव्यरत रह नतमस्तक रहते है। जिन्हें पैसे के लिये या केवल सम्मान व पुरूस्कार के लिये ही फिल्म लिखना आता है। चौथे किस्म की पत्रकारिता का वर्ग एक रैकेट व एक दलाल के रूप में काम करता है। इस वर्ग में हर उमर से लेकर, दौलत का अंबार परोस कर, कुछ लोग पत्रकारिता की आड़ में असल पत्रकारिता या असल पत्रकारों की मेहनत मिशन व मशक्कत के साथ उनकी इज्जत और उन्हे मिलने वाला धन या सहायता हड़प जाते हैं। मगर किसे अधिमान्यता दिलानी है कार्यालयों तक इनका माया जाल हर जगह फैला रहता है। भ्रष्टाचार ऐसा कौन-सा कार्यालय है, जहां नहीं चलता। इसलिये इनका धंधा और पेशा बदस्तूर खुल कर चलता है। जम कर चलता है। पत्रकारों का है, जो पहले वाले किस्म के वर्ग की पत्रकारिता करें तो, जिसके विरूद्ध उनकी कलम चलेगी। उस पर व उसके परिवार पर जुल्म और अत्याचार का कहर न केवल उधर से टूटेगा। बल्कि, इस देश में जहां बेईमानी, झूठ, फर्जीवाड़े, भ्रष्टाचार, का साम्राज्य चहुंओर फैला हुआ है। वहां उन्हें सताया जाता है कि या तो वे खुद ही आत्महत्या कर लें या लिखना बंद कर दें। पत्रकारिता छोड़ दें। या उनकी सीधे हत्या ही करवा दी जाती है इनको अपना दुश्मन खुद ही मान लेना। ये कुछ आज 5 प्रकार के वर्ग के लोग पत्रकारिता कर रहे हैं। पाठक या दर्शक बहुत आसानी से यह पहचान लेता है। कि कौन पत्रकार किस वर्ग का है। लुटिया डुबो दी बल्कि चुटिया भी एक दलाल का वेतन क्या है उड़ा दी। और पत्रकारिता जो एक मिशन है। उसकी खाल उधेड़ कर उसमें भूसा भर कर उसे धंधा एवं पेशा बना दिया।भारत के स्वतंत्रता संग्राम के वक्त पत्रकारों की डिग्रीयां और व्यापम-फयापम नही होते थे। पर कलम थी। जिस पर कुछ लिखने की कला व महारत थी। वह जुगाड़ लगा कर पत्रकारिता करने लगता था। उसे किसी अधिमान्यता की जरूरत नहीं होती थी।उसे न अधिमान्यता मिलने का लालच लोभ उसकी कलम को कुंद व भोंथरा करता और

न अधिमान्यता चली जाने या छिन जाने का खौफ उसे सता कर चमचागिरी चाटुकारिता चापलूसी भरी कलम चलवाता। न उसे किसी सम्मान के लिये या पुरूस्कार के लिये लिखना होता था, न किसी शराब, शवाब और कवाब के लिये उसकी कलम चलती।इन हालातों पर हम एक शेर कहना चाहेंगे।
*जो कलमें बिकतीं नहीं इस आला बाजार में, सरे राह बिकना पड़ता है उन पत्रकारों को बाजार में,*
*जो दे नहीं सकते रकम आबरू और गर्म गोश्त के कवाब उन्हें सब कुछ गंवाना पड़ता है संसार में*
अब तो पत्रकारिता पर हावी हो कर हुस्न और महफिल का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। वहीं दूसरी ओर यह कहना लाजिम है, धन्ना सेठों, पैसा लुटाने वालों, और गर्म गोश्त परोसने वाले, दलाल आज की पत्रकारिता की कमान संभाले दलाली और कमाई के समन्दर में गोते लगा रहे हैं वहीं आजकल जो बात बहुत सुनने में आती है।वह पत्रकारों के लिये एक वेतन आयोग बनाने और सभी पत्रकारों व गैर पत्रकार कर्मचारीयों को वेतन, भत्ते और पेंशन को लेकर सामने आती है। बस एक यक्ष प्रश्न मात्र इतना सा ही है कि क्या हर मीडिया का संसाधन, आय स्त्रोत और औकात, प्रसारण संख्या मिलने वाला दो नंबर के धन क्या एक बराबर है।क्या सारे मीडिया एक तुल्य आय संसाधन वाले हैं, और एकतुल्य कमाने वाले हैं, सीधा सा जवाब है, कोई मीडिया छोटा मीडिया है, मंझोला मीडिया है तो कोई एकल मीडिया है, कोई बड़ा और लंबा चौड़ा मीडिया हाउस है। कुल मिलाकर सबकी हालत और औकात एक बराबर नहीं है,कुछ असल व पात्र सुयोग्य अनुभवी पत्रकारों को उमर गुजर गई। मगर अधिमान्यता तक नहीं मिली, उनके पास देने को पैसे नहीं है, शराब शवाब और कवाब की व्यवस्था नहीं है।पत्रकारिता का पेशा और एक स्कूल चलाने का पेशा दोनों लगभग एकतुल्य मिशन हैं। मगर जो फर्क स्कूलों में है और जो वहां होता है, वही पत्रकारिता जगत का हाल है। मिशन होकर भी पत्रकारिता में पांच वर्ग हैं।इसी तरह स्कूल चलाने में भी ऐसे ही 5 वर्ग हैं। मगर स्कूलों में कभी वेतनमान आयोग बनाने और प्रावधान तय करने की बात तक नहीं होती। और उसी के समान समाज सेवा में जुटे पत्रकार न केवल कहर के तमाम प्रहारों से गुजरते हैं बल्कि जिसके विरूद्ध लिख दें उसी के दुश्मन बन जाते हैं और फिर शुरू होता है एक खेल स्कूलों में भी ऐसा खेल है मगर कुछ कहर और दुश्मनी कम है।अंत में ये ही कहना चाहेंगें पत्रकारों दलाली छोड़ो, दलालों पत्रकारिता छोड़ो।

बुल्गारिया में विदेशी मुद्रा दलाल लाइसेंस

यूरोपीय संघ का एक हिस्सा होने के नाते, बुल्गारिया वित्तीय पर्यवेक्षण आयोग के विनियमन के अंतर्गत आता है, जो नियमों को निर्धारित करता है जिसका पालन करने के लिए सभी लाइसेंस प्राप्त कंपनियों की आवश्यकता होती है। यूरोपीय संघ के नियामक लाभों के साथ, बुल्गारिया खुद को विदेशी मुद्रा दलालों और उद्यमियों के लिए एक वांछनीय बाजार के रूप में दावा करता है।

हमारी कंपनी बल्गेरियाई ब्रोकर लाइसेंस प्राप्त करने में आपका साथ देने के लिए तैयार है – वित्तीय क्षेत्र में सबसे अधिक आधिकारिक दस्तावेजों में से एक। हमें बल्गेरियाई वित्तीय पर्यवेक्षण आयोग में एक ब्रोकर लाइसेंस के पंजीकरण के सभी चरणों के माध्यम से मार्गदर्शन करने में खुशी होगी।

बुल्गारिया क्या अवसर प्रदान करता है?

  • स्थिर आर्थिक विकास और यूरोपीय संघ में सबसे कम कॉर्पोरेट कर (लगभग 10%)
  • लाभांश और लाभ को अपने व्यवसायों से दूसरे खातों और देशों में स्थानांतरित करने पर प्रतिबंधों की अनुपस्थिति
  • देश में औसत वेतन के निम्न स्तर के लिए सरल कर प्रणाली व्यापार विकास के लिए एकदम सही स्थिति बनाती है
  • आपको दो अलग-अलग प्रकार के ब्रोकर लाइसेंस प्राप्त करने की अनुमति है

आपके लिए क्या जानना आवश्यक है?

  • बुल्गारिया में निवेशक देश के स्थान के लिए एक स्मार्ट निर्णय लेते हैं, जो यूरोपीय संघ के बाजारों के साथ-साथ मध्य और पूर्वी यूरोप के बाजारों तक पहुंचने की अनुमति देता है।
  • व्यक्तियों और निगमों के लिए कर कल्पनात्मक रूप से कम 10% के साथ संतुष्टि देता है; डिविडेंड टैक्स 5% तक आता है, जबकि वैट लगभग 20% है।

क्या दस्तावेज आवश्यक हैं?

ग्राहक के रूप में, आपको यह प्रदान करना होगा:

  1. आपके पासपोर्ट की एक प्रति, जवाबदेह व्यक्ति द्वारा नोटरीकृत
  2. पिछले तीन महीनों की उपयोगिता बिल
  3. निदेशक या बैंक के शेयरधारक के खाता विवरण के साथ एक संदर्भ पत्र
  4. आपके वकील का एक संदर्भ पत्र
  5. निर्देशक या शेयरधारक से एक सीवी
  6. शिक्षा के बारे में अपने प्रमाण पत्र की एक प्रति

नोट: सभी दस्तावेजों को अंग्रेजी में अनुवादित किया जाना चाहिए और तीन प्रतियों के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

अन्य आवश्यक दस्तावेज:

  1. बुल्गारिया प्रतिभूति और वायदा आयोग के लिए आवेदन
  2. घोषणा, क़ानून द्वारा पता लगाया गया
  3. बैंक दावा प्रपत्र
  4. एंटी मनी लॉन्ड्रिंग सिस्टम
  5. सुविस्तृत व्यापार योजना
  6. दीर्घकालिक वित्तीय भविष्यवाणियां
  7. AML/CFT घोषणा

आठ चरणों की पूर्ण प्रक्रिया परिणाम:

  1. नाम उपलब्धता का सत्यापन
  2. आवश्यक दस्तावेजों की तैयारी
  3. कागज भरना
  4. प्रधान मांगों की बैठक
  5. मॉडरेटर के साथ साक्षात्कार पास करना
  6. लाइसेंस लाइसेंस प्राप्त करना
  7. लाइसेंस तक पहुँचना
  8. अपना बैंक खाता खोलना

पूर्ण सलाह पाने के लिए कृपया हमारे विशेषज्ञ से संपर्क करें

सऊदी अरब में फंसी कोटा की तीन महिलाएं, दी जा रही हैं यातनाएं

कोटा शहर की रहने वाली तीन महिलाएं सऊदी अरब में फंस गई हैं. महिलाएं घरेलू कामकाज के लिए 5 माह पूर्व एक दलाल के माध्‍यम से साऊदी अरब के जेद्दाह गई थी.

कोटा शहर की रहने वाली तीन महिलाएं सऊदी अरब में फंस गई हैं. महिलाएं घरेलू कामकाज के लिए 5 माह पूर्व एक दलाल के माध्‍यम से साऊदी अरब के जेद्दाह गई थी.

कोटा शहर की रहने वाली तीन महिलाएं सऊदी अरब में फंस गई हैं. महिलाएं घरेलू कामकाज के लिए 5 माह पूर्व एक दलाल के माध्‍यम से साऊदी अरब के जेद्दाह गई थी.

  • News18 हिंदी
  • Last Updated : October 10, 2015, 17:08 IST

कोटा शहर की रहने वाली तीन महिलाएं सऊदी अरब में फंस गई हैं. महिलाएं घरेलू कामकाज के लिए 5 माह पूर्व एक दलाल के माध्‍यम से साऊदी अरब के जेद्दाह गई थी.

वतन वापसी की मांगी जा रही कीमत

परवीन बानो,बेबी और कुलसुम नाम की इन महिलाओं को 15 से 17 हजार रु. प्रतिमाह के वेतन का वादा करके दलालों द्वारा सऊदी भेजा गया और वहां फंसने के बाद अब वतन वापसी के लिए उनसे 80 हजार की मोटी रकम मांगी जा रही है.

महिलाओं के साथ मारपीट

परिजनों के मुताबिक सऊदी के जेद्दाह में फंसी इन महिलाओं से परिजनों का महीनों से संपर्क नहीं हैं और अंतिम समाचारों के मुताबिक वहां उन्हे बुरी तरह से मारा-पीटा जा रहा है. दरअसल, सऊदी गई इन महिलाओं में से एक कर्ज में डूबी थी तो बाकी आर्थिक तंगी से परेशान थी और इसी मजबूरी का फायदा उठाकर दलालों ने इन्हें झांसे में लेकर सऊदी अरब भेज दिया था. पूरे मामले में कोटा के आम आदमी पार्षद मोहम्मद हुसैन अब भारतीय दूतावास और स्थानीय प्रशासन से भी गुहार लगा रहे हैं.

सऊदी अरब में अब नहीं होगी हाउसमेड की सप्लाई!

उधर, भारतीय नौकरानी का हाथ काट जाने की एक अन्य घटना के बाद अब भारत सरकार सऊदी अरब में हाउसमेड सप्लाई पर प्रतिबंध लगाने का विचार कर रही है. सरकार अब सऊदी अरब में भारतीय नौकरों या नौकरानियों के साथ हो रही इस तरह की घटनाओं के बाद जल्द ही ये फैसला ले सकती है. ऐसे कई मामले भी सामने आए हैं जिनमें दुष्कर्म भी शामिल हैं.

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दलाली पर हंगामा है क्यूं बरपा?

केवल वीर और बरखा ही दोषी क्यों? : मीडिया जगत के लिए यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है : इससे पहले भी कई बार पत्रकारों का नाम दलाली में आ चुका है : आज मीडिया के कितने दिग्गज सीना ठोककर कह सकते हैं कि वो बेदाग हैं? : दरअसल आज की कॉरपोरेट मीडिया का यही है असली चेहरा जिसे हम देखना नहीं चाहते : जिसको सब जानते हैं उसका नाम आए तो बवाल और अपने ऊपर के अधिकारी को कौन देख रहा? : मैं न तो वीर-बरखा का समर्थक हूं और न हीं उनका विरोधी। आजकल मीडिया के बहुचर्चित मंच भड़ास4मीडिया पर इन दोनों के बारे में खुलासे-चर्चा ने मुझे भी इस पर कुछ लिखने पर विवश किया। मीडिया घराने आज कॉरपोरेट हो गए हैं। इनमें संपादकों की जगह मार्केटिंग और सेल्स के वाइस प्रेसीडेंट और मैनेजर्स हावी हो चुके हैं। एडिटोरियल का मीडिया घराने में दखल इनके मुकाबले काफी कम हो चुका है।

अब संपादकों और संपादकीय टीम की औकात बाजार से पैसे लाने वाली टीम से काफी कम हो चुकी है। वीर-बरखा आज मीडिया के वो ताजा चेहरे बन चुके हैं जिनका नाम खुले रूप से दलाली और गैरमीडिया हरकतों में शुमार हो चुका है, सभी के सामने आ गया है, सीबीआई की जांच में खुल चुका है। कॉरपोरेट जगत की शतरंजी बिसात में मंत्रियों को मोहरों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए नीरा राडिया, वीर संघवी, बरखा दत्त एक ओर से खेल रहे हैं और दूसरी ओर से कॉरपोरेट जगत के दिग्गज। यह वो कॉरपोरेट टाइकून हैं जो अपने हित साधने के लिए इन्हें पैसे देकर अपना मोहरा सही जगह फिट करते हैं।

पर क्या हम केवल वीर और बरखा को ही दोषी करार दें? क्या वीर-बरखा ही मीडिया की दाल में कुछ काला हैं? क्या वीर-बरखा के अलावा बाकी मीडिया पाक-साफ और वंदनीय है? क्या वीर-बरखा ने ऐसा कुछ किया है जो आज तक किसी और मीडियाकर्मी ने नहीं किया? क्या मीडिया हस्ती के रूप में शुमार हो चुके वीर-बरखा इस पचड़े में शामिल हैं इसलिए ही इतना बवाल मचा हुआ है? क्या इनके काले कारनामें सामने आने के बाद से मीडिया के दिग्गज और छुटभैय्ये ऐसा कुछ नहीं करेंगे? क्या मीडिया आज अपने उसूलों पर खरी उतर रही है? क्या आज मीडिया अपने वास्तविक पथ पर चल रही है? और भी न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में कौंध रहे हैं।

आप मानें या न मानें, हलक से नीचे उतरे या नहीं लेकिन हकीकत से रूबरू हो जाने में ही समझदारी है। आज मीडिया घराने दरअसल दलाली का एक गढ़ बन चुके हैं। कभी मीडिया घराने के मालिक का कोई काम, कभी संपादक का और कभी मार्केटिंग के वाइस प्रेसीडेंट का। हर बॉस का काम कराना पत्रकारों की मजबूरी भी है और इसके लिए वो नैतिक या अनैतिक रास्ता नहीं देखते। कैसे भी और कुछ भी की तर्ज पर उनके काम कराना जरूरी और मजबूरी होता है। मेरा लेख पढऩे वाले आप में से शायद ही कोई हो जो इस हकीकत से वास्ता न रखता हो। अब बात करते हैं दलाली की। आज मीडिया का दूसरा चेहरा दलाली ही हो गया है। बड़े मीडिया हाउस और बड़ी मीडिया हस्तियां बड़ी दलाल और छोटे पत्रकार और मीडिया के छोटे घराने छोटे दलाल। दोनों एक दूसरे को फूटी कौड़ी नहीं सुहाते लेकिन एक हमाम में हैं तो दोनों बखूबी वाकिफ हैं कि हम दोनों नंगे हैं। अगर नहीं मानते हैं तो जितनी भी मीडिया हस्तियों के नाम पता हों उनके घर का पता ढूंढि़ए उनके घर पहुंचिए और देखिए उनके ऐशोआराम। मीडिया में होने के नाते सभी दिग्गजों का पहला एक दलाल का वेतन क्या है पता तो आम लोगों के लिए कुछ आम टाइप ही होगा। लेकिन उनके किसी बेहद करीबी से पता करिए तो पता चलेगा कि सर का किस शहर में कितना बड़ा प्लॉट है और किस हॉट सिटी में कितने बेडरूम का लग्जरी फ्लैट। उनके कितने बैंक अकाउंट हैं और किसमें कितना पैसा है?

उनकी पत्नी, बच्चों और रिश्तेदारों की क्या हैसियत है और वे कहां सेट हैं? उनके रिश्तेदारों के अकाउंट में कितना पैसा है? साथ ही न जाने कितनी और जानकारियों से आप हैरान परेशान हो जाएंगे। …टेंशन लेने की जरूरत नहीं बस केवल इतना सोचने की हिम्मत जुटाईए कि मीडिया में केवल एक वीर और एक बरखा ही ऐसे नहीं हैं जो दलाली, मोटी कमाई और अपने उसूलों से समझौता करके आज हर ऐशोआराम के स्वामी बन गए हैं। उनके रिश्तेदारों के पास आज हर लग्जरी सुविधाएं हैं। पर देखना कौन चाहता है यार? क्योंकि मेहनत से जी चुराना हम सभी को भाने लगा है। हकीकत न देखना मीडिया कर्मियों का शगल बनता जा रहा है। हकीकत न देखने के ज्यादा पैसे मिलते हैं और हकीकत बयां करने पर कानूनी नोटिस, दुश्मनी, बॉस की फटकार और नौकरी जाने का खतरा मंडराता रहता है। इसलिए मीडिया के अधिकांश लोग आज आंखें मूंद लेने में ही भलाई समझते हैं। आज मीडिया संस्थानों में अनुशासन, कर्मठता, सदाचारी, सत्य-तथ्य आदि के भाषण बाचने वाले दिग्गजों के गिरेबान में झांककर देखिए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।

वीर-बरखा ने यह किया इस पर मुझे बस केवल इतना आश्चर्य हुआ कि इन दोनों को क्या जरूरत थी? इनके पास पैसा, पॉवर, प्रतिष्ठा, बैक अप और भी बाकी सब कुछ मौजूद था तो इन्होंने अपनी साख का जुआं क्यों खेला? क्यों इन्होंने बदनामी का डर किए बिना खुद को बेच दिया और लाखों प्रशंसकों का दिल तोड़ दिया? लेकिन अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो होना था हो चुका। अब हमारे सामने केवल हकीकत और सुबूत हैं जिनकी बदौलत हमको निर्णय लेकर आगे का सफर पूरा करना है।

क्या यही है मीडिया की हकीकत? : क्या आपने कभी सोचा है कि मीडियाकर्मियों का वेतन उनके बराबर डिग्री पाने वाले बीटेक-एमबीए से क्यों कम होता है? क्यों मीडिया में डिग्री-डिप्लोमा की अहमियत नहीं होती? क्यों मीडियाकर्मी कम पैसों में और मुफ्त में भी नौकरी करने के लिए तैयार रहते हैं? क्योंकि मीडिया एक ऐसा सशक्त और जुगाड़ू माध्यम है जिसका सही से और दिमाग से इस्तेमाल करने वाला पैसे के लिए परेशान नहीं होता। उसे जितना चाहिए होता है वो उससे भी ज्यादा का जुगाड़ खुद भी करता है और दूसरों को भी करवाता है। आज भी मीडिया में आने वाले नए युवा तेवर, ईमानदारी, जानकारी, बोलचाल, हुनर, लेखन, संपादन में बेहतर हैं, उनके अंदर मीडिया की आग से खेलने का जज्बा है लेकिन उन्हें सही जगह नहीं मिल रही। गाहे-बगाहे किसी को मिली भी तो उसे वरिष्ठों या फिर घाघों ने जमने नहीं दिया और साठ गांठ से बाहर का रास्ता दिखवा दिया।

किसी भी मीडिया घराने के खातों की तिमाही-छमाही-सालाना रिपोर्ट उठा लीजिए मुनाफे के आंकड़े देखकर उसके कद का अंदाजा सहज ही हो जाएगा। लेकिन इस मुनाफे के लिए जिम्मेदार पत्रकारों और कर्मियों को इस मुनाफे का कोई हिस्सा नहीं मिलता। आईआरएस और टीआरपी में पहले से पांचवें पायदान पर काबिज चैनल और अखबारों की प्रतियां बढ़ती जा रही हैं लेकिन उनके कर्मियों को आज भी सरकारी चतुर्थ वर्ग के समान भी वेतन नहीं मिल रहा है। महंगाई को देखते हुए सरकार छठा वेतनमान लगा चुकी है लेकिन मीडिया में वेतन का कोई पैमाना आज भी नहीं लग सका। आखिर इसकी क्या वजह है? क्यों मीडिया घरानों के मालिक पत्रकारों को इतना कम वेतन देते हैं? जाहिर सी बात है उन्हें पता है कि मीडियाकर्मी जुगाड़ करके रोजी रोटी के अलावा घरबार भी जुटा लेते हैं। मीडिया घरानों के मालिकों और संपादकों को बखूबी पता है कि इतने कम वेतन में काम करने वाला व्यक्ति अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाथ पैर तो मारेगा ही और इससे उनके भी हित सधेंगे। उनके कानूनी-गैरकानूनी काम आसानी से एक झटके में हो जाएंगे।

मेरी राय है कि अब मीडियाकर्मियों को एकजुट होने का वक्त आ चुका है। आज जरूरत है कि टीवी, रेडियो, अखबार, मैगजीन, वेब आदि के मीडियाकर्मी एक मंच पर एक संगठन से जुड़ें और दूसरे के हितों को मसाला बनाकर बेचने की जगह खुद के हकों के लिए लड़ें। मीडिया घरानों के मालिकों को बता दें कि हम कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे नहीं हैं जो हमारे बराबर डिग्री धारी से कम वेतनमान पर काम करें। संशोधित वेतनमान और सम्मान की मीडियाकर्मियों को भी दरकार है। दूसरों की आवाज को उठाने वाले अगर खुद एक जुट होकर खड़े हो जाएं तो इतिहास बन जाएगा, एक नया अध्याय जुड़ जाएगा और अपने हितों को साधने में जुटे कुकुरमुत्ते की तरह आ रहे नए मीडिया घरानों के मालिकों को उनकी फौज की ताकत का पता चल जाएगा। और जिस दिन मीडियाकर्मियों को उनके खर्चे पूरे करने लायक जायज वेतन मिलने लगेगा दावे के साथ कह सकता हूं कि उस दिन मीडिया में दलाली की दाल नहीं गलेगी। मीडियाकर्मी छोटे हितों के लिए समझौता करना छोड़ देंगे और फिर से हमारे देश को एक नया और सशक्त मीडिया मिल सकेगा।

लेखक ‘कुमार हिंदुस्तानी’ देश के एक बड़े अखबार के दिल्ली-एनसीआर स्थित आफिस में कार्यरत हैं. ये असली नाम और पहचान के साथ यह सब नहीं लिख पा रहे थे इसलिए छुपा नाम ‘कुमार हिंदुस्तानी’ रख लिया है.

एक दलाल का वेतन क्या है

मलेशिया में फंसे झारखण्ड के 30 मज़दूर, चार माह से वेतन नहीं मिलने से दाने-दाने के लिए हुए मोहताज

रांची(RANCHI) - गिरिडीह, हजारीबाग और बोकारो से ताल्लुक रखने वाले 30 मजदूरों ने मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर के बेंटोंग से अपने वतन वापसी की गुहार लगाई हैं. प्रवासी मजदूरो के हित में कार्य करनेवाले सिकन्दर अली के माध्यम से सभी मजदूरों ने भारत सरकार व झारखंड सरकार के नाम त्राहिमाम संदेश भेजा है.कंपनी की ओर से पिछले चार महीने का वेतन नहीं मिलने से दाने-दाने के लिए मोहताज हैं.बता दें,कि यह कोई पहला मौका नहीं है. जब दलालों के चक्कर में पड़कर गरीब तबक़े के लोग विदेशों में फंस जाते हैं. पूर्व में पश्चिमी अफ्रीका के माली में 33 मजदूरो के फंसे होने के मामले सामने आए थे.पिछले तीन वर्ष पूर्व 30 जनवरी 2019 को बोकारो जिले के गोमियां प्रखंड के तिसकोपी निवासी बासुदेव महतो और चैन्नई के एजेंट शिवम द्वारा तीन साल के एग्रीमेंट पर लीडमास्टर इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन एसडीएन बीएचडी में मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर भेज दिया गया.

दलालों के चक्कर में पड़ कर गरीब तबक़े के लोग

तीन साल का एग्रीमेंट वीजा की अवधि भी समाप्त हो चुका हैं.सभी मजदूरों का वीजा भी खत्म होने की वजह से मजदूर गुलाम की तरह जिंदगी बसर कर रहे हैं.सभी मजदूरो ने बकाया राशि दिलाकर वापसी की गुहार लगायी हैं.वहीं प्रवासी मजदूरों के हित में कार्य करने वाले समाजसेवी सिकन्दर अली ने कहा कि यह पहला मौका नहीं है.जब दलालों के चक्कर में पड़ कर गरीब तबक़े के लोग विदेशों में फंस जाते हैं और पूर्व में भी ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें दलाल द्वारा मजदूरों को ज्यादा रुपए कमाने का लालच देकर विदेशो में भेज देते हैं और वे विदेश जाकर फंस जाते हैं.ऐसे में सरकार को इस पर ठोस कदम उठाने की जरूरत हैं.फंसे मजदूरो में हजारीबाग जिले के बिष्णुगढ प्रखंड जगलाल महतो(चानो),गोबिन्द महतो(चानो),चेतलाल महतो(चानो), भुनेश्वर महतो(चानो),मनोज महतो(चानो),लीलो महतो(चानो),सुरेश महतो(मंगरो),गिरघारी महतो(रखवा),प्रकाश कुमार महतो(भेलवरा),तिलेश्वर महतो(सपमरवां),प्रदीप कुमार महतो(टुटकी) बोकारो जिले के गोमियां प्रखंड के रोहित महतो(तिसकोपी),प्रेमलाल महतो(तिसकोपी),दशरथ महतो(तिसकोपी),केशु महतो(तिसकोपी)बासुदेव महतो(तिसकोपी),विश्वनाथ महतो(तिसकोपी),पुनीत महतो(बडकी सीधाबारा)
प्रेमचंद महतो(छोटकी सीधाबारा),टुकामन महतो(चिलगो) , बोकारो जिले के नावाडीह प्रखंड दुलारचंद महतो(महुवाटांड), भुनेश्वर कमार(महुवाटांड),झरी कमार(महुवाटांड), गिरिडीह जिले के बगोदर प्रखंड बिनोद कुमार महतो(खेतको) ,बासुदेव महतो(खेतको),रामेश्वर महतो(खेतको),बुधन महतो(खेतको), गिरिडीह जिले के डुमरी प्रखंड के बुधदेव प्रसाद(मंगलुअहरा),देवानंद महतो(सेवाटांड), बिनोद महतो(घुटवाली) शामिल हैं.

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