मुद्रा और साख

साख का अर्थ , साख की परिभाषा - Meaning of credit, definition of credit
साख का अर्थ , साख की परिभाषा - Meaning of credit, definition of credit
'साख' का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द क्रेडिट है, जो लैटिन भाषा के शब्द क्रिडों से उत्पन्न हुआ है, जिसका तात्पर्य है मैं विश्वास करता हूँ। इस प्रकार साख का शाब्दिक अर्थ विकास अथवा भरोसा होता है। आर्थिक भाषा में साख शब्द का प्रयोग प्राय उधार लेन-देन या स्थगित भुगतान के लिए होता है। वैसे क्रेडिट शब्द का प्रयोग तीन अर्थो में किया जा सकता है-उधार लेन-देन में, व्यापार में किसी व्यक्ति की साख का अनुमान लगाने में तथा हिसाब लेखों में नाम अथवा जमा की प्रविष्टियों में।
जेवन्स के अनुसार साख शब्द का अर्थ "भुगतान को स्थगित करना है। टॉमस के अनुसार, साख वह विश्वास है, जिसके आधार पर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपनी बहुमूल्य वस्तुएँ तथा सेवाएँ देता है, भले ही ये वस्तुएँ मुद्रा, सेवा तथा मुद्रा और साख साख मुद्रा क्यों न हों और आशा करता है कि वह व्यक्ति इनको वापस लौटा देगा। जीड के शब्दों में, साख एक ऐसा विनिमय कार्य हैं जो एक निश्चित अवधि के उपरान्त भुगतान करने पर पूर्ण होता है।" इन सभी परिभाषाओं में साख को विश्वास पर आधारित स्थगित भुगतान माना गया है।
भारत में ‘मुद्रा एवं साख’ का नियंत्रण कौन करता है?
Explanation : भारत में 'मुद्रा एवं साख' का नियंत्रण भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा किया जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह परिमाणात्मक व गुणात्मक उपायों का उपयोग करता है। आपको बता दे कि साख को, भुगतान प्राप्त करने के दावे के रूप में परिभाषित किया जाता है। साख को, भुगतान प्राप्त करने के दावे के रूप में परिभाषित किया जाता है। जब एक बैंक लोगों को ऋण देता है तो वह एक ऋण दाता बन जाता है और वह व्यक्ति जो बैंक से ऋण लेता है, ऋणी कहलाता है। जब बैंक आज ऋण देता है तो वह भविष्य में उस व्यक्ति से ऋण वसूल करने का प्रबन्ध भी कर लेता है। इसका अभिप्राय यह है कि बैंक भविष्य में ऋणी से मुद्रा के लिये दावा कर सकता है। इसी के अनुसार, बैंक अपनी जमाओं में विस्तार करने में समर्थ होता है। इसे बैंक द्वारा साख का सृजन कहते हैं।. अगला सवाल पढ़े
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भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) देश की मौद्रिक व्यवस्था का प्रबंध कैसे करती है?
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की स्थापना 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम,1934 के प्रावधानों के अनुसार की गई थी. RBI को नोट जारी करने और उन्हें वाणिज्यिक बैंकों की मदद से देश की अर्थव्यवस्था में पहुँचाने का काम करती है. नोटों को जारी छापने के लिए रिजर्व बैंक; न्यूनतम रिजर्व प्रणाली (Minimum Reserve System) को अपनाता है.
RBI का संक्षिप्त इतिहास
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 के प्रावधानों के अनुसार की गई थी। रिजर्व बैंक का केंद्रीय कार्यालय शुरुआत में कलकत्ता में खोला गया था लेकिन 1937 में इसे स्थायी रूप से बॉम्बे ले जाया गया.
आरबीआई देश की सर्वोच्च मौद्रिक संस्था है, यह नोटों (एक रुपये को छोड़कर) का मुद्रण करती है और देश के वाणिज्यिक बैंकों को वितरित करती है। इसलिए आर. बी. आई. पूरी अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति का निर्णय करती है.
RBI का गठन किया गया था–
- अर्थव्यवस्था में मुद्रा का मुद्रण और वितरण सुनिश्चित करना।
- ‘बैंकों के बैंक’ के तौर पर काम करने के लिए।
- विदेशी मुद्रा के संरक्षक के तौर पर काम करने और वित्तीय मामलों में केंद्र एवं राज्य सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए।
आरबीआई की प्रस्तावना (Preamble of the RBI):
भारतीय रिजर्व बैंक की प्रस्तावना में रिजर्व बैंक के मूल कार्यों को इस प्रकार वर्णित किया गया हैः
" …बैंक नोटों के मुद्दे को विनियमत करना और भारत में मौद्रिक स्थिरता हासिल करने की दृष्टि से भंडार बनाए रखना एवं देश के लाभ को ध्यान में रखते हुए इसकी मुद्रा एवं साख प्रणाली का संचालन करना। "
संगठनात्मक संरचनाः केंद्रीय निदेशक बोर्ड (Organisation Structure):
आर.बी.आई. के मुख्य कार्य:
1. नोटों को जारी करनाः देश में नोटों को जारी करने के मामले में रिजर्व बैंक का एकाधिकार है। इसके पास एक रुपये के नोट को छोड़कर सभी मूल्यवर्ग के नोटों को जारी करने का एकमात्र एकाधिकार है। चूंकि वित्त मंत्रालय द्वारा जारी किया जाने वाला एक रुपये का नोट भी इसके माध्यम से वितरित होता है, इसलिए रिजर्व बैंक वैध निविधा धन के एकमात्र स्रोत के तौर पर भी काम करता है। नोट के मामले के लिए रिजर्व बैंक न्यूनतम भण्डारण प्रणाली (Minimum Reserve System) को अपनाता है। वर्ष 1957 से इसने 200 करोड़ रुपयों के स्वर्ण और विदेशी मुद्रा का भंडार हमेशा बनाए रखा है जिसमें से कम– से– कम करीब 115 करोड़ रुपये का स्वर्ण भंडार होना चाहिए।
2. सरकार का बैंकरः रिजर्व बैंक का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य सरकार के लिए बैंकर, एजेंट और सलाहकार के तौर पर काम करना है। यह राज्य एवं केंद्र सरकार के सभी बैंकिंग कार्यों को करता है और यह उपयोगी भी है।
जिस प्रकार सामान्य बैंक अपने ग्राहकों के लिए काम करते हैं उसी प्रकार बैंकरों का बैंक– रिजर्व बैंक भी काम करता है। यह न सिर्फ वाणिज्यिक बैंकों का बैंकर है बल्कि यह अंतिम ऋणदाता भी है।
3. साख का नियंत्रकः रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों द्वारा बनाए गई साख को नियंत्रित करने की भी जिम्मेदारी लेता है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए देश में साख को कुशलता से नियंत्रित और विनियमित करने के लिए यह मात्रात्मक एवं गुणात्मक तकनीकों का व्यापक प्रयोग करता है।
4. विदेशी मुद्रा भंडार का अभिरक्षकः विदेशी विनिमय दरों को स्थिर रखने के लिए रिजर्व बैंक विदेशी मुद्राओं को बेचता और खरीददता है। साथ ही यह देश के विदेशी मुद्रा भंडार का संरक्षण भी करता है।
5. अन्य कार्यः बैंक कई प्रकार के विकासात्मक कार्य भी करता है। इनमें शामिल हैं– कृषि के लिए ऋण की व्यवस्था हेतु निकासघर का कार्य व्यवस्थित करना, आर्थिक आंकड़े एकत्र और प्रकाशित करना, सरकारी प्रतिभूतियों एवं व्यापार बिलों की खरीद– फरोख्त, मूल्यवान वस्तुओं की सरकारी खरीद–बिक्री के लिए ऋण प्रदान करना आदि। यह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) में सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करता है और भारत की सदस्या का प्रतिनिधित्व करता है।
देश के मौद्रिक बाजारों का प्रबंध रिजर्व बैंक कैसे करता है?
देश के मौद्रिक बाजार को नियंत्रित करने के लिए आरबीआई दो प्रकार के उपकरणों का प्रयोग करता हैः
(i) मुक्त बाजार संचालन
(ii) छुट दर या बैंक दर
(iii) नकद आरक्षित अनुपात (कैश रिजर्व रेश्यो)
(i) मुक्त बाजार संचालन (ओएमओ): इस पद्धति के तहत आरबीआई मुक्त बाजार में सरकारी प्रतिभूतियां और ट्रेजरी मुद्रा और साख बिलों की खरीद– बिक्री करता है। जब आरबीआई मुद्रास्फीति या बाजार में पैसे की आपूर्ति को कम करना चाहता है तो यह सरकारी प्रतिभूतियों और ट्रेजरी बिलों को वित्तीय संस्थानों को बेच देता है और इसका विपरीत।
(ii) छूट दर या बैंक दरः वह दर जिस पर आरबीआई वाणिज्यिक बैंकों को पैसे उधार देती है। जब आरबीआई मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए बाजार में पैसे की आपूर्ति कम करना चाहती है तो यह बैंक दर को बढ़ा देती है ताकि उधार लेना सभी उधारकर्ताओं (संस्थानों) के लिए महंगा हो जाए।
(iii) नकद आरक्षित अनुपात (कैश रिजर्व रेश्यो– सीआरआर): यह वह पैसा होता है जिसे वाणिज्यिक बैंकों ने आरबीआई में जमा कराया होता है। जब आरबीआई यह देखती है कि बाजार में अत्यधिक पैसा आने की वजह से अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति बढ़ गई है तो मुद्रास्फीति को रोकने के लिए आरबीआई सीआरआर बढ़ा देती है ताकि वाणिज्यिक बैंकों के पास उधार देने के लिए कम पैसे बचें।
(i) क्रेडिट राशनिंग
(ii) ऋण मार्जिन में बदलाव
(iii) नैतिक प्रत्यायन
(i) क्रेडिट राशनिंग – इस पद्धति में ( उच्च मुद्रास्फीति के समय) ऋण सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में मुद्रा और साख मुद्रा और साख दिया जाता है जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण (उत्पादक उधार देना) होते हैं। अन्य उपाय है, धन की आपूर्ति की जांच के लिए सीमा को बढ़ाने के बाद अन्य ऋणों पर ब्याज का निर्धारण।
(ii) ऋण मार्जिन में बदलावः इस विधि के तहत बैंक गिरवी रखी गई संपत्ति के मान के कुछ प्रतिशत तक ही ऋण देते हैं। गिरवी रखी गई संपत्ति और दिए गए ऋण की धनराशि के बीच का अंतर ऋण मार्जिन कहलाता है।
(iii) नैतिक प्रत्यायनः नैतिक प्रयायन आरबीआई के निर्देशों के अनुरुप वाणिज्यिक बैंकों को ऋण के अग्रिम का भुगतान करने के लिए मनाना है। इस विधि के तहत आरबीआई वाणिज्यिक बैंकों से देश में धन की आपूर्ति के प्रबंधन में सहयोग की बात करता है।
कक्षा 10 हमारी अर्थव्यवस्था पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh
Mudra Bachat Aur Sakh
Bihar Board Class 10 Economics पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh
मुद्रा- मुद्रा पैसे या धन के उस रूप को कहते हैं जिससे दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय होती है। इसमें सिक्के तथा कागज के नोट दोनों आते हैं।
अर्थशास्त्री मार्शल ने कहा है कि ‘आधुनिक युग की प्रगति का श्रेय मुद्रा को ही है।‘
मुद्रा का इतिहास
मुद्रा को आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। मुद्रा के विकास के इतिहास को मानव सभ्यता के विकास का इतिहास कहा जा सकता है। सभ्यता के प्रारंभिक अवस्था में जब मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थी तो वे अपनी जरूरत की वस्तुएँ स्वयं उत्पादित कर लिया करते थे। लेकिन लोगों की संख्या मं वृद्धि के साथ ही उनकी आवश्यताओं में भी वृद्धि होने लगी, जिसे पूर्ति करने में कठिनाई महसूस की जाने लगी। तब वे आपस में एक-दूसरे के द्वारा उत्पादित वस्तुओं के आदान-प्रदान से अपनी आवश्कताओं की पूर्ति करने लगे। जिसके कारण मुद्रा का विकास हुआ।
आज प्रायः मनुष्य किसी एक काम में ही अपना समय लगाता है। इससे जो आय प्राप्त होता है उससे अन्य वस्तुएँ प्राप्त कर लेता है। जिसके कारण आज विनिमय का महत्व बढ़ गया है।
विनिमय के स्वरूप- विनिमय के दो रूप है-
Bihar Board Class 10 Economics पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh
- वस्तु विनिमय प्रणाली- वस्तु विनिमय प्रणाली उस प्रणाली को कहा जाता है जिसमें एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान होता है। जैसे- गेहूँ से चावल का बदलना, दूध से दही का बदलना, शब्जी से घी का बदलना आदि।
वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ
- आवश्यकता के दोहरे संयोग का अभाव- आवश्यकता के दोहरे संयोग का मतलब है कि एक की जरूरत दूसरे से मेल खा जाए लेकिन ऐसा कभी संयोग ही होता था कि किसी की जरूरत किसी से मेल खा जाए। ऐसी स्थिति में कठिनाई होती थी।
- मूल्य के सामान्य मापक का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली में ऐसा कोई सर्वमान्य मापक नहीं था जिसकी सहायता से सभी प्रकार के वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य मुद्रा और साख को ठीक प्रकार से मापा जा सके। जैसे- जैसे एक सेर चावल के बदले कितना तेल दिया जाए? एक गाय के बदले कितनी बकरियाँ दी जायें?
- मूल्य संचय का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली के द्वारा उत्पादित वस्तुओं के संचय की असुविधा थी। व्यवहार में व्यक्ति कुछ वस्तुओं का उत्पादन करता है जो शीघ्र नष्ट हो जाती है। ऐसी जल्दी नष्ट होने वाली वस्तुओं की संचय की असुविधा होती थी।
- सह-विभाजन का अभाव- कुछ वस्तुएँ ऐसी होती है, जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता है, यदि उनका विभाजन कर दिया जाए तो उनकी उपयोगिता नष्ट हो जाती है। जैसे एक गाय के बदले में तीन चार वस्तुएँ लेनी होती थी और वे वस्तुएँ अलग-अलग व्यक्तियों के पास थी। इस स्थिति में गाय के तीन चार टुकड़े नहीं किए जा सकते। ऐसी स्थिति में विनिमय का कार्य नहीं हो सकता है।
- भविष्य के भुगतान की कठिनाई- वस्तु विनिमय प्रणली में उधार लेने तथा देने में कठिनाई होती थी। जैसे कोई व्यक्ति किसी से दो वर्षों के लिए एक गाय उधार लेता है और इस अवधि के बीतने पर वह लौटा देता है। लेकिन दो वर्षों के अंदर उधार लेनेवाला व्यक्ति गाय के दूध पिया तथा उसके गोबर को जलावन के रूप में उपयोग किया। ऐसी स्थिति में उधार लेने वाले को मुनाफा होता था तथा उधार देनेवाले को घाटा होता था।
- मूल्य हस्तांतरण की समस्या- वस्तु विनिमय प्रणाली में मूल्य हस्तांतरण में कठिनाई होती थी। जैसे कोई व्यक्ति किसी स्थान को छोड़कर दूसरे जगह बसना चाहता। ऐसी स्थिति में उसको अपनी सम्पत्ति छोड़कर जाना पड़ता था, क्योंकि उसे बेचना कठिन था।
- मौद्रिक विनिमय प्रणाली- मुद्रा का विकास मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है। सुप्रसिद्ध विद्वान क्राउथर ने कहा था कि ‘ जिस तरह यंत्रशास्त्र में चक्र, विज्ञान में अग्नि और राजनीतिशास्त्र में मत का स्थान है, वही स्थान मानव के आर्थिक जीवन में मुद्रा का है।
मौद्रिक विनिमय प्रणाली में पहले कोई व्यक्ति अपनी वस्तु या सेवा को बेचकर मुद्रा प्राप्त करता है और फिर उस मुद्रा से अपनी जरूरत की अन्य वस्तुएँ प्राप्त करता है।
मुद्रा के कार्य- मुद्रा के प्रमुख कार्य हैं-
- विनिमय का माध्यम,
- मुल्य का मापक,
- विलंबित भुगतान का मान,
- मूल्य का संचय,
- क्रय शक्ति का स्थानांनतरण और
- साख का आधार।
Bihar Board Class 10 Economics पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh
मुद्रा का विकास
मुद्रा का क्रमिक विकास निम्नलिखित है-
- वस्तु विनिमय,
- वस्तु मुद्रा,
- धात्विक मुद्रा,
- सिक्के,
- पत्र मुद्रा और
- साख मुद्रा
मुद्रा का आर्थिक महत्व
आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में मुद्रा का काफी महत्व है। यदि मुद्रा न होती तो विश्व के विभिन्न देशों में इतनी आर्थिक प्रगति कभी भी संभव नहीं होती। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था हो या समाजवादी अर्थव्यवस्था हो या मिश्रित अर्थव्यवस्था हो, सभी में मुद्रा आर्थिक विकास के मार्ग में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ट्रेस्कॉट ने कहा है कि ‘यदि मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं तो रक्त-स्त्रोत तो अवश्य है।‘
मुद्रा से लाभ
- मुद्रा से उपभोक्ता को लाभ
- मुद्रा से उत्पादक को लाभ
- मुद्रा और साख
- वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों का निराकरण
- मुद्रा और पूँजी की तरलता
- मुद्रा और पूँजी की गतिशीलता
- मुद्रा और पूँजी निर्माण
- मुद्रा और बड़े पैमाने के उद्योग
- मुद्रा और आर्थिक प्रगति
- मुद्रा और सामाजिक कल्याण
बचत- आय तथा उपभोग में अंतर बचत कहलाता है।
बचत दो प्रकार का होता है-
कुल आय का ऐसा अंश जो किसी भी प्रकार की वस्तु पर खर्च नहीं किया जाता है, उसे नगद बचत कहते हैं।
कुल आय का वह भाग जो टिकाऊ वस्तुओं पर खर्च किया जाता है उसे वस्तु संचय कहते है। इसे विनियोग कहा जाता है।
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साख क्या है?
साख का अर्थ है- विश्वास या भरोसा।
साख एक ऐसा विनिमय कार्य है जो एक निश्चित अवधि के बाद भुगतान करने के बाद पूरा हो जाता है।
साख के दो पक्ष होते हैं- 1. ऋणदाता और 2. ऋणी।
साख के आधार
साख के मुख्य आधार निम्नलिखित है-
- विश्वास, 2. चरित्र, 3. चुकाने की क्षमता, 4. पूँजी एवं संपत्ति, 5. ऋण की अवधि।
साख पत्र- साख पत्र का मतलब उन साधनों से है जिनका उपयोग साख मुद्रा के रूप में किया जाता है। साख पत्र के आधार पर साख या ऋण का आदान-प्रदान होता है। साख पत्र ठीक मुद्रा की तरह कार्य करते हैं।
साख पत्र कई प्रकार के होते हैं- 1. चेक, 2. विनिमय बिल, 3. बैंक ड्राफ्ट, 4. हुण्डी, 5. प्रतिज्ञा पत्र, 6. यात्री चेक, 7. पुस्तकीय साख तथा 8. साख प्रमाण पत्र।
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